अविस्मरणीय बॉलीवुड कलाकार असरानी को समर्पित श्रद्धांजलि लेख, आईएएस ललित मोहन रयाल की कलम से…
सिंधी हिंदू परिवार में 1 जनवरी 1947 को जन्में गोवर्धन सिंह असरानी ने जयपुर की गलियों से निकलकर मायानगरी मुंबई में अपने अभिनय से जगह बनायी, मेहनत की पटकथा के साथ उम्दा अभिनय के बुलंद इरादों वाले व्यक्तित्व से फ़िल्म जगत में ख़ुद को स्थापित किया, असरानी के निधन पर उनके करोड़ों फैन्स में मायूसी छाई हुई है…
पढ़िए मशहूर कलाकार असरानी को समर्पित श्रद्धांजलि लेख आईएएस ललित मोहन रयाल की कलम से–
असरानी हिंदी सिनेमा के उन चुनिंदा अभिनेताओं में से हैं जिन्होंने हर तरह के किरदारों में अपनी अलग छाप छोड़ी। उनकी वर्सेटैलिटी का सबसे बेहतरीन इस्तेमाल ऋषिकेश मुखर्जी जैसे संवेदनशील निर्देशकों ने किया। मुखर्जी की फिल्मों में असरानी ने अक्सर भावनाओं के कोमल पक्ष को हास्य के रंग में पिरोया। कई फिल्मों में वे हेमा मालिनी के भाई के रूप में नजर आए, जबकि बावर्ची में उन्होंने कृष्णा (जया भादुड़ी) के ‘संभावनाशील’ संगीतकार ‘पप्पू चाचा’ का किरदार निभाकर दर्शकों का दिल जीता।
अभिमान के ‘चंद्रू’ को भला कौन भूल सकता है —
मेरे अपने (1971) में रघुनाथ शर्मा के किरदार के माध्यम से असरानी ने उस दौर के पढ़े-लिखे मगर दिशाहीन युवा की मनःस्थिति को हल्के-फुल्के व्यंग्य के साथ दिखाया। उनकी संवाद-अभिव्यक्ति में जो बनावटी गंभीरता और आत्म-विडंबना थी, वह चरित्र को असाधारण बना देती है।जीवंत हो उठा। ‘खुशबू’ जैसी फिल्मों में उन्होंने एक अलग ही रंग दिखाया,और फिर ‘शोले’ का वह मशहूर जेलर — एक ऐसा किरदार जो केवल असरानी जैसा कलाकार ही गढ़ सकता था। इस भूमिका के लिए उन्होंने हिटलर के भाषणों की रिकॉर्डिंग सुनी और हिटलर के संवादों के उतार-चढ़ाव से प्रेरणा लेकर अंग्रेजों के जमाने वाले जेलर का स्वर रचा। यह अभिनय आज भी भारतीय सिनेमा के हास्य इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है।
असरानी का हास्य केवल हँसाने भर का नहीं था, वह अक्सर मानवीय कमजोरी, असुरक्षा और सामाजिक विडंबनाओं को भी उजागर करता था। ‘चुपके चुपके’ में उनका ‘प्रोफेसर पी. के. श्रीवास्तव’ का किरदार—जो परिमल का दोस्त है और उसकी योजना में शामिल होता है—उस बारीक हास्य का उदाहरण है, जिसमें अभिनय और संवाद दोनों की नफासत झलकती है।
अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना के साथ असरानी की जोड़ी भी कई यादगार फिल्मों में देखने को मिली। अभिमान, चालबाज़, परिचय, नमक हराम, छोटी बहू और हम जैसी फिल्मों में वे कभी दोस्त बने, कभी मसखरा, तो कभी वह संवेदनशील पात्र जो दर्शकों के दिल में अपनापन छोड़ जाता है।
सत्तर और अस्सी के दशक में असरानी ने अपने हास्य और भावनात्मक अभिनय की झलक विभिन्न रूपों में दिखाई। उन्होंने गुजराती सिनेमा में भी कई महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं और मंच से लेकर टेलीविजन तक अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखी।
नब्बे के दशक में जब हिंदी सिनेमा का हास्य ‘ओवर द टॉप’ होने लगा, तब भी असरानी अपने सधे हुए संवाद और नियंत्रित हाव-भाव के कारण अलग नज़र आए। ‘तकदीरवाला’ में कादर खान के साथ चित्रगुप्त की भूमिका में वे नई पीढ़ी के दर्शकों के बीच भी उतने ही प्रिय बन गए। उनके छोटे मगर प्रभावशाली किरदार हमेशा दर्शकों की स्मृति में बसे रहे।
असरानी केवल अभिनेता नहीं, बल्कि एक प्रशिक्षक और निर्देशक भी रहे। पुणे फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित असरानी ने अभिनय की बारीकियों को समझा और आगे आने वाली पीढ़ी को भी सिखाया।

उनके अभिनय की सबसे बड़ी खूबी यह रही कि वे चाहे छोटी भूमिका निभाएँ या प्रमुख — हर बार दर्शक उन्हें नोटिस करते हैं। असरानी ने अपनी चिर-परिचित मुस्कान, हल्के-फुल्के संवादों और इंसानी भावनाओं की सूक्ष्म समझ से हर पीढ़ी के दर्शकों को हँसाया, सोचने पर मजबूर किया — और यही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है।
लेखक आईएएस ललित मोहन रयाल

